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ये रचना मैंने तब लिखी थी जब मैं कक्षा १० में था…और अब तक ये मेरी diary में थी , परन्तु अब मैं ये आप सब के साथ शेयर करना चाहता हूँ,,,,ये रचना मैंने हॉस्पिटल में एक लड़की को देखने के बाद ही लिखी थी……..
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कुर्सी पे बैठी वो सुन्दरता की मूर्त, अंग अंग में छलक रही थी सुन्दरता, उसे देख ऐसा लगा मुझे…. मुझे मेरा जीवन साथी मिल गया….
मैंने उससे बात करना चाही, पर कर न पाया फिर एक दिन , मैंने उससे उसका नाम पुच्छ लिया उसने अपना नाम किरण (काल्पनिक नाम) बताया मुझे ऐसा लगा जैसे, मेरे अँधेरे जीवन में किसी ने दीपक जलाया , अब तो मुलाकातों का सिलसिला शुरु हो गया, पर जब भी मिलता उससे कुर्सी पर पता उसको,
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एक दिन मैंने उससे कह दी दिल की बात, क्या आप बनोगी मेरी जीवन साथी, क्या आप देगी मेरा साथ उम्र भर, उसने मुझे रोकते हुवे कहा ” ऐसा तो बहुत लोग कह चुके है, पर दे न पाया कोई साथ मेरा” मैंने कहा ” पर मैं ऐसा नहीं एक बार साथ तो चल के देखो, हर कदम पे मैं तुम्हारे साथ मिलूँगा” तब उसने कहा ” शायद आपने ध्यान से देखा नहीं और आपने ये पूछा भी नहीं , कि मैं हमेशा क्यों रहती हूँ बैठी ? मैंने पूछा “क्यों ?????”. उसने कहा ” यह कुर्सी नहीं wheelChair है, और मैं चल नहीं सकती दो कदम भी, क्या अब भी आप मेरा साथ दोगे?”
मैं बहुत देर तक मोंन वह खड़ा रहा और फिर बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिया , क्युकी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं था, ,,,,
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एक सवाल आप सबसे :
कई बार ऐसा देखने को मिलता है ,,,,कि हम किसी छोटी सी कमी के कारण किसी को अपना साथी बनाने से इनकार कर देते है, आखिर क्यों? कई लोग तो इस बात पे भी इंकार कर देते है, कि लड़की या लड़का नज़र का चश्मा पहनते है ??? आखिर क्यों ?? आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा ????
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