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प्रेमिका की तलाश

Main Aur Meri Tanhai
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प्रेम, यानी इश्क का भूत कब और किस पर सवार हो जाए, कहना मुश्किल है। यह भूत वक्त, हालात या उम्र, किसी का भी खयाल नहीं रखता। कोई भी इससे बच नहीं सकता। हम सभी कभी-न-कभी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं। असल में यह भूत हमेशा हमारे इर्दगिर्द मौजूद रहता है। इसे जरा सा मौका मिला और हो गया सवार। फिर इसका कोई इलाज नहीं, सब झाडफ़ूंक बेकार। अभी ठीक से चलना भी नहीं सीखा था कि मुझे भी इस ने धर दबोचा। मैंने पीछा छुड़ाने की बहुत कोशिश की, परंतु वह नहीं माना। मैं ही कमजोर साबित हुआ। मजबूरन झुकना पड़ा, परंतु एक गहरा संकट उठ खड़ा हुआ।

प्रेम करना है तो एक अद्द प्रेमिका भी होनी चाहिए। प्रेमिका भी ऐसी कि… पूछो नहीं। आज तक न तो ऐसी हुई हो और न आगे कभी हो। वर्तमान में एक हो और वह केवल मेरे लिए। सो सारा बचपन एक अद्द प्रेमिका की तलाश में गुजर गया, लेकिन खोज पूरी न हुई। जवानी की दहलीज पर कदम रख चुका था, हालांकि अभी अभी थोड़ी-बहुत लड़खड़ाहट थी। मेरे मन से आवाज उठी, ‘अरे मूर्ख, तू क्यों पागल बनता  है ?  एक प्रेमिका ढूंढकर उसके पीछे सारी जिंदगी पागल बन, लोगों के ताने सुनने और पत्थर खाने में कोई अक्लमंदी नहीं। इसलिए प्रेमिका तलाश मुहिम बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई।

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हमने पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों को पढ़कर और कुछ तो सीखा नहीं, परंतु इतना जरूर जान लिया कि राजा, महाराजाओं और सामंतों के प्रेम का श्रीगणेश नदी के किनारे जलक्रीड़ा करती या पानी के लिए जाती सुंदरियों की छेड़छाड़ से होता था। नदी, पोखर का जमाना तो रहा नहीं, सुंदरियां बाथरूम में बंद हो कर जलक्रीड़ा करने लगी हैं। इसलिए मैंने बड़े अरमानों से मोहल्ले के नल की ओर पग बढ़ा दिए। पानी का संकट चल रहा था, सो लंबी लाइन लगी थी। इसे मैंने अपना सौभाग्य समझा। मैंने लाइन के चारों ओर चक्कर लगाया तो परेशान हो गया कि प्रेम किस से शुरू करूं? सभी एक से बढ़कर एक थीं। मैंने अक्ल से काम लिया और सोचा, एकसाथ तीन-चार निशानें लगाता हूं, जो भी सही बैठ गया, उसी से काम चला लूंगा। अपनी ओर से कोशिश शुरू कर दी। खूब फब्तियां कसीं, खूब ऊटपटांग गाने गाए, बेहूदा शेरों के तीर चलाए, लेकिन किसी के दिल में प्रेम के बीज फूटना तो दूर, कान में जूं तक नहीं रेंगी। न तो किसी ने झूठा गुस्सा दर्शाया और न ही कोई हंसी। न जाने जल संकट के कारण उन्होंने ध्यान नहीं दिया या पहले ही मेरे जैसे झूठे-सच्चे प्रेमी बना चुकी थीं। मेरी पहली कोशिश बेकार गई।.

कालेज की सबसे खूबसूरत लड़की मेरी क्लास में पढ़ती थी। एक दिन चार-पांच लड़कों ने घेर लिया और छेड़खानी करने लगे। मैं उधर से निकला तो उन्हें ललकारा, ”अकेली लड़की को छेड़ते हो।” ”अकेली को छेड़ें या सहेलियों के साथ, तुझे क्या?” एक लड़का मुसकराया। मैं गुस्से में चिल्लाया, ”चुपचाप यहां से दफा हो जाओ। नहीं तो एकएक की हड्डी-पसली तोड़ दूंगा।” ”अरे, जा-जा…तेरे जैसे सुकडे पहलवानों से डरने लगे तो लूट लिया हमने छेड़छाड़ का मजा।” दूसरा गुस्से से बोला। अपने दुबले-पतले बदन को देखकर एक बार तो मैं डर ही गया। मैं वहां से भागने ही वाला था कि ऐन वक्त पर याद आ गया। मैंने ढिशुमढिशुम शुरू कर दी। चंद घूंसे खाकर चारों रफूचक्कर हो गए। लड़की कांपती हुई मेरे पास आई और बोली, ”मैं आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलंगी।” ”एहसान कैसा, यह तो मेरा फर्ज था। तुम अकेली क्या आती हो? अगर बुरा न मानो तो मेरे साथ आया-जाया करो। मेरा घर भी इधर ही है।”मैंने बिना किसी फीस के नेक सलाह दे दी। वह फूटफूट कर रोने लगी तो मेरी आंखें चमक उठीं। मन ही मन खुश हुआ कि काम बन गया। ”तुम घबराओ नहीं। मैं हूं न।” मैं स्टाइल में बोला। उसके होंठ फडफ़ड़ाए, ”भैया…” मैं धड़ाम से आसमान से सीधा धरती पर आ गया। उसने सुबकी ली, ”मेरा कोई भाई नहीं है। मुझे इसका बहुत दुख था, रक्षाबंधन पर मेरी सभी सहेलियां अपने भाइयों को राखी बांधती हैं, अपनी रक्षा के लिए मैं किसे राखी बांधूं? ”परसों रक्षाबंधन है। तुम हमारे घर जरूर आना। मैं अभी बाजार से राखी खरीद लाती हूं।” उसने आंसूं पोंछ लिए। उसकी आंखों में खुशी की चमक उभर आई। मेरी बोलती बंद हो गई। सिर हिलाने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह बाजार की ओर बढ़ गई। मेरी क्या हालात हुई, इसका आप अंदाज लगा सकते हैं। अपने दोस्तों को नाटक करने व मार खाने के लिए जो रुपए दिए, वे अलग डूब गए।

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मैं जिस भी समारोह में जाता हूं, चाहे वह दोस्त का हो या दुश्मन का, उत्सव हो या मातम, मेरी निगाहें रूपसियों को तलाश करती रहती हैं। ताकझांक करने में कभी-कभी तो मैं रिश्तों को भी ताक पर रख देता हूं। जवानी की दहलीज पर मजबूती से कदम जम चुके थे। कालेज के मौजमस्ती के माहौल को छोड़कर आफिस के बोर माहौल में आ गया था। इत्तिफाकन आफिस से में बहुत सी लड़कियां काम करती थीं। मैंने सोचा, ‘चलो, मन लगाने का कुछ तो साधन है। मेरा मन कामधाम में नहीं लगता था, बस दिनभर लड़कियों को ताकता रहता और कल्पना करता था कि सभी लड़कियां मुझे घेरे हुए प्रेमभरी बातें कर रही हैं। मेरे एक साथी को मेरे इश्की भूत को पता चला तो उसने नेक सलाह दी, ”यार, साइकिल से काम नहीं चलेगा। तू कम से कम स्कूटर तो खरीद ले, फिर आती-जाती लड़कियों को लिफ्ट दे।” सलाह मुझे पसंद आ गई। इधर-उधर से रुपया उधार लेकर नया तो नहीं परंतु पुराना स्कूटर खरीद लिया। वह दो-चार महीने तो सही चला, फिर खड़पड़ करने लगा। मैंने बहुत कोशिश की कि कोई लड़की लिफ्ट मांगे। मैं स्कूटर की रफ्तार धीमी कर लेता, परंतु मेरे स्कूटर का आलाप सुनकर लड़कियां पहले ही मुंह फेर लेतीं। एक दिन मैंने बस स्टाप पर आफिस की एक लड़की को देखा। मेरी बांछें खिल गईं, फौरन स्कूटर रोक लिया, ”मैडम, पहले ही देर हो गई है, मेरे साथ स्कूटर पर चलो।” उसने जबरदस्ती धन्यवाद कहा और मुंह मोड़ लिया। वहां खड़े सभी लोग मुझे घूरने लगे तो आगे बढऩा पड़ा। मैडम आफिस 15 मिनट देर से पहुंची और मैं पूरे तीन घंटे देरी से पहुंचा। मैं हांफता हुआ मैडम की सीट तक पहुंचा और बोला, ”अच्छा हुआ, जो आप मेरे साथ नहीं आईं। रास्ते में स्कूटर खराब हो गया था। कोई मैकेनिक की दुकान भी नहीं मिली… स्कूटर खींच कर लाना पड़ा।” ”यह तो मुझे पहले ही पता था,” मैडम गंभीरता से बोली। ”कैसे? क्या आप ज्योतिष भी जानती हैं?” ”तुम्हारे खचड़ा स्कूटर से और क्या उम्मीद की जा सकती है,” मैडम मुंह बनाती हुई बोलीं। सभी के चेहरों पर मुस्करान खिल उठी। मैं अपना सा मुंह लेकर चुपचाप अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। उसी दौरान मेरी जबरदस्ती शादी कर दी गई। बच्चे हो गए, लेकिन इश्क का भूत न उतरा।

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एक दिन मैंने आफिस की लड़कियों के घरों के बारे पता लगाया। केवल एक लड़की का घर मेरे घर के पास था, जो खूबसूरत तो नहीं, पर ठीकठाक थी। मैंने शान से उससे कहा, ”मैडम, मेरा घर आपके घर के पास ही है। आप बस में आने के बजाय मेरे साथ आया-जाया कीजिए।” उसने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा और चीखी, ”बकवास बंद करो।” अगले दिन मेरी पेशी हो गई। मैनेजर ने खूब डांटा और मेरी तरक्की भी रोक दी। मैं सोचने लगा कि ऐसी क्या गलती हो गई? बाद में पता चला कि उस लड़की ने मेरी शिकायत कर दी थी। मैनेजर की निगाहें पहले ही उस पर लगीं थीं।

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हमारे आफिस में नया क्लर्क आया। वह मजनू बना घूमता। अपनी प्रेमिकाओं के नाम गिनवाता। उनके बारे में चटखारे ले लेकर चटपटे किस्से सुनाता। मुझे लगा, अब जाकर कोई सही आदमी मिला। ”गुरु, मैं बहुत परेशान हूं। आज तक कोई प्रेमिका नहीं मिलीं। हमें भी कोई गुरुमंत्र दो,” मैं गिड़गिड़ाया। वह मुसकराया, ”तुम आफिस कैसे आते हो?” ”स्कूटर से।” ”तुम यहीं मार खा गए।” ”वह कैसे?”मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। ”प्रेम का श्रीगणेश बसों में होता है… भीड़भाड़, घिचपिच रहती है, बस सुनहरा मौका देखा और हो जाओ शुरू।” मेरे स्कूटर आफिस न ले जाने के फैसले पर घर के सभी लोग हैरान हो गए। पत्नी ने कहा, ”तुम से कितनी बार कहा कि इस खचड़ा को मत ले जाओ, परंतु तुम ने कभी नहीं सुनी। लगता है, आज तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है… तुम दफ्तर नहीं जाओगे।” ”परंतु मैं ठीक हूं,” मैं खीज उठा। मेरा बेटा किसी डाक्टर की तरह बोला, ”अच्छा यह बताइए, आपका क्या नाम है?” ”अनुराग।” ”आपका आफिस कहां है?” ”सेक्टर-10 नोएडा में।” ”अच्छा, यह बताओ, आज तारीख क्या है?” ”15 अक्टूबर।” ”आप ठीक हैं। आफिस जा सकते हैं।” वह सिर हिलाते हुए इतमीनान से बोला। मुझे बहुत झुंझलाहट हुई। आफिस के लिए देर हो रही थी, इसलिए चुपचाप खिसक लिया। मैं बस में चढ़ा तो देखा कि एक हसीन लड़की सामने ही खड़ी है। मैं मन ही मन खुश हुआ। वह जैसे ही भीड़ में आगे बढ़ी, मैंने वैसे ही उसे छेड़ा तो हंगामा खड़ा हो गया। ”लुच्चे-लफंगे, लड़की को छेड़ते शरम नहीं आती,” वह चिल्लाई। उस लड़की से दो-चार कदम आगे खड़े लड़के ने मेरा कालर पकड़ कर एक घूसा जड़ दिया और चीखा, ”मारो साले को…” एक अधेड़ बोल उठा, ”क्या जमाना आ गया है… इन लौफरों ने बहू-बेटियों का घर से निकलना मुश्किल कर दिया है। ऐसी धुनाई करना कि छठी का दूध याद आ जाए।” सबको बहती गंगा में हाथ धोने का मौका मिल गया। सबके सब शरीफ बन गए। तड़तड़ातड़। मुझे वह मार पड़ी कि अस्पताल में भर्ती होने के चार घंटे बाद होश आया और डेढ़ महीने तक वहां आराम करना पड़ा। तकरीबन दो महीने बाद दफ्तर जाना शुरू किया तो देखा कि वही लड़का और लड़की बस में छेड़छाड़ कर रहे हैं और एक-दूसरे को देखकर मुसकरा रहे हैं। वह अधेड़ मंदमंद मुसकराते हुए बड़े मोहक अंदाज से लड़की को घूर रहा है। मेरा दिल जल उठा।

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मेरे मजूनं गुरु ने समझाया, ”यह भी प्रेम करने का फार्मूला है, जो पंसद न आए, उसकी शिकायत कर दो, हंगामा खड़ा कर दो, उसे बदनाम कर दो। जो पसंद आ जाए, नैन लड़ाते रहे और बगुलाभगत बनकर प्रेम करते रहो।” सारी उम्र बीत गई। दो-चार साल और जी गया तो बहुत है। कब्र मैं पैर लटके हुए हैं, लेकिन इश्क का भूत नहीं उतरा है। प्रेमिका की चाह अभी भी बाकी है।

(इस रचना के मूल लेखक श्री अनुराग जी है, और उनकी सहमति के बाद ये रचना आप सबके साथ साँझा  किया है )

http://lekhakmanch.com/?p=223

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